अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
ज्ञानलवदुविदग्धं ब्रह्मापितं नरं न रञ्जयति ॥भर्तहरि नीतिशतकम॥
अर्थ - अज्ञानी को सरलता से समझाया जा सकता है, ज्ञानी को और भी सरलता से समझाया जा सकता है किन्तु ज्ञान-लव-दुविदग्ध [थोड़ा जानकर ही अपने को पण्डित मानने वाले] को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता ।
दुनिया में डेढ़ अकल, एक मेरे पास आधी में सारी दुनिया- ऐसा समझने वाले व्यक्ति को ज्ञान-लव दुविदग्ध कहते हैं। ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते । अर्थात समझाया या ज्ञान उसी को दिया जा सकता है जो सीखना चाहता है या जो ये मानता है की मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ मुझमें ज्ञान की अपूर्णता है। इसी विषय में तुलसीदासजी ने भी कहा है- "फूलइ फलइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद । मूरख हृदय न चेत जौं गुरु मिलहि बिरंचि सम।" अर्थात यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता। इस श्लोक से हमें स्वयं भी पूर्ण ज्ञानी न बन के ज्ञान प्राप्ति के लिए तत्पर रहना चाहिए और और ज्ञान-लव-दुविदग्ध (डेढ़ अकल) वाले को ज्ञान देने में अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ नहीं करनी चाहिए